
आतंकवाद पर कविता का पॉडकास्ट “लगता नहीं के हम इंसान है” जी हाँ दोस्तों हमारी आज की इस पोस्ट ऐसे इन्सानों के बारे में है जो कि आतंकवाद के चक्कर में फंस जाते हैं और अपनी इंसानियत भूल जाते हैं |
आतंकवाद पर कविता का पॉडकास्ट
लगता नहीं के हम इंसान है
बनाई नई अब तो पहचान है
ना दर्द दिखता ना हैं चीख सुनते
बस चंद रूपियों के खातिर ही बिकते
क्या हम अपने पुरखों की ही पहचान हैं
क्या हम अपने पुरखों की ही पहचान हैं
हाँ ,लगता नहीं के हम इंसान है
नशा हम करें हैं दगा भी करें
ना सुनते कभी कोई कुछ भी कहे
हैवानियत से ही आजकल जान पहचान है
हैवानियत से ही आजकल जान पहचान है
हाँ ,लगता नहीं के हम इंसान है
अब जेबों में रखते कई गोलियां
खेलते खून की हैं हर दिन होलियां
नहीं याद भी रहा कि कब से घर ना गए
नहीं याद भी रहा कि कब से घर ना गए
हाँ ,लगता नहीं के हम इंसान है
जो जीवन में हमने चुना रास्ता
दिखता आसान होता है महंगा बड़ा
मिलती मर के भी नहीं कोई पहचान है
मिलती मर के भी नहीं कोई पहचान है
हाँ ,लगता नहीं के हम इंसान है
हाँ ,लगता नहीं के हम इंसान है
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